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गुरुवार, 11 जनवरी 2018

गुरु की खोज

स्वामी विवेकानंद जयंती के उपलक्ष्य में स्वामी जी के चरणों में समर्पित |

कॉलेज का आखिरी दिन था | सभी आपस में गले मिल रहे थे, एक दुसरे से विदा ले रहे थे | हॉस्टल के बीते दिनों को याद कर रहे थे | वही पेड़ के नीचे  दोस्तों की एक टोली अपनी बातो में मगन थी | एक तरफ स्नातक की पढाई पूरी होने की खुशी थी तो, दूसरी और दोस्तों से दूर होने का गम | तभी राजेश के पिता जी आ गये और सभी मित्र एक दुसरे से फिर मिलने का वादा करके अपने घर को चल दिए |
शहर में रह कर अपनी पढाई पूरी किया राजेश आज लगभग चार पांच वर्ष बाद अपने गाँव जा रहा था | लगभग दोपहर के दो बजे राजेश अपने पिता रघुनन्दन के साथ बस पकड़कर गाँव को चल दिया | राजेश के पिता रघुनन्दन एक साधारण किसान थे व खेती किसानी कर अपने परिवार का पालन- पोषण करते थे | लम्बे सफ़र के बाद लगभग शाम 6 बजे राजेश अपने पिता के साथ गाँव जा पहुँचा | राजेश गाँव की मेड तक ही पहुँच पाया होगा की छोटू दोड़ता हुआ, चाचा – चाचा कहता राजेश से जा लगा | राजेश ने भी उसे गोद में उठा लिया -
छोटू – चाचा जी – चाचा जी आप हमारे लिए क्या लाये ?
राजेश – क्या चाहिए हमारे छोटू को ?
छोटू – टॉफी, खिलोने, साईकिल और ...
राजेश – इतना सारा ! ठीक है , अभी ये टाफी ले लो |
राजेश, छोटू को गले लगा लेता है, ऐसे ही बाते करते- करते तीनो घर पहुँच जाते है | घर पहुँचते ही राजेश कि माँ अपने बेटे से मिलने दरवाजे पर आ जाती है, राजेश झुक कर उनके चरण छूता है व आशीर्वाद लेता है | तभी अन्दर से सुनीता (राजेश की भाभी) की आवाज़ आती है, राजेश हाथ मुह धोकर तैयार हो जाओ खाना लग चुका है | खाना खा कर राजेश अपनी लम्बे सफ़र की थकान मिटाने सोने चला जाता है |
अगले दिन सुबह उठ कर राजेश अपनी नित्य क्रिया से निवृत हो, अपने मित्रो से मिलने के लिए गाँव की और निकल पड़ता है | सुबह – सुबह गाँव का माहोल बहुत ही प्रसन्नता भरा दिखाई पड़ता है, बड़े दिनों बाद अपने गाँव की मिटटी की खुशबु पाकर राजेश को खुशी होती है | घूमते – घूमते राजेश चोपाल पर जा पहुँचता है, जहाँ उसके बचपन का मित्र राहुल गाँव के कुछ दोस्तों के साथ गप्पे लड़ा रहा था |
राजेश को देखकर राहुल व सभी दोस्त खुश हो जाते है और राहुल से शहर के बारे में, कॉलेज के बारे में तरह – तरह के सवाल करने लगते है | दोस्तों से मिलकर राजेश, राहुल के साथ उसके घर की और निकल पड़ता है | राहुल के पिता मुरारी लाल जी धार्मिक प्रवत्ति के एक रूढीवादी व्यक्ति है | जेसे ही राजेश राहुल के घर पहुँचता है, आँगन में मुरारी काका दातुन करते हुए खाट पर बेठे मिलते है | राजेश उन्हें झुक कर प्रणाम करता है, और मुरारी काका के साथ बैठ जाता है | मुरारी काका राजेश से हाल – चाल पूछने लगते है-
मुरारी काका – बेटा राजेश बड़े दिनों बाद गाँव लौटे हो, तुम्हारी पढाई कैसी चल रही है ?
राजेश – हाँ काका, बी. ए. की पढाई पूरी कर ली है, कुछ ही दिनों में एम.ए. के लिए वापस शहर चला जाऊंगा |
मुरारी काका – बहुत अच्छी बात है बेटा खूब पढो और गाँव का नाम रौशन करो |
राजेश – जी काका |
(इस बीच अपने स्वाभाव अनुसार मुरारी काका धार्मिक व आध्यात्मिक बाते छेड़ देते है )
मुरारी काका – बेटा राजेश, एक बात बताओ क्या तुमने किसी को अपना गुरु बनाया है ?
राजेश – नहीं काका, अभी तक तो नहीं बनाया |
मुरारी काका – अरे बेटा, तब तो तेरा पढना, लिखना व्यर्थ ही है, बिना गुरु ज्ञान अधुरा होता है | हर किसी को, किसी न किसी को अपना गुरु बनाना ही होता है | शास्त्रों में भी गुरु की महिमा का बखान किया गया है और हमारी धार्मिक परम्पराओ के अनुसार भी हर कोई अपना गुरु बनता है |
राजेश – वो सब तो ठीक हे काका, मगर आज के समय में ऐसा कोई मिलता भी कहा है |
मुरारी काका – अरे बेटा, हमारे एक गुरु जी है बहुत बड़े संत है, बहुत सिद्ध पुरुष है, बड़े – बड़े लोगो ने, बड़े – बड़े नेताओ ने उन्हें अपना गुरु बनाया है| तू कल ही राहुल के साथ जा और उन्हें मिल आ कुछ ही दिनों में गुरु पूर्णिमा आ रही है, तो तू उनसे गुरु दीक्षा ले लेना |
राजेश – जी काका मिल आता हूँ |
राजेश, राहुल और मुरारी काका से विदा लेकर अपने घर की और लौट आता है और आकर रात्रि को पूरा किस्सा अपने पिता को सुनाता है | राजेश के पिता भी मुरारी काका के समर्थन में राजेश को गुरु जी से मिल आने कह देते है | राजेश अपने पिता और मुरारी काका की बातो से कुछ चिंता में पड़ जाता है, फिर भी वह सुबह जाने का विचार करके सोने चला जाता है |
अगली सुबह जब राजेश सो कर उठता है तो, राहुल पहले से ही आ पहुँचता है, स्नान आदि से फुर्सत होकर राजेश, राहुल के साथ गुरु जी के आश्रम की और निकल पड़ता है | राहुल से पता चलता है की आश्रम पास ही के एक शहर में है, कुछ समय में दोनों आश्रम पहुँच जाते है |
आश्रम की सुन्दरता देखते ही बनती थी, चारो तरफ से रंग- बिरंगे फूलो, बगीचों से घिरा हुआ, या यूँ कहा जाये धरती पर स्वर्ग सा प्रतीत हो रहा था | राजेश के मन में आश्रम को देख कर गुरु जी की भी एक अद्भुद छवि बन रही थी | जैसे ही दोनों आश्रम के अन्दर प्रवेश करते है तो देखते है कि वहां तो पहले से गुरु जी के भक्तो का जमावड़ा लगा हुआ है | एक कमरे के बाहर लम्बी सी कतार में सभी अपना नम्बर आने के इंतजार में खड़े हुए है | राजेश के मन की उत्सुकता धीरे – धीरे और बढ़ रही थी | तभी एक गेरुआ वस्त्र धारण किये हुए नवयुवक राजेश को कतार में लग कर अपना नम्बर आने का इंतजार करने को कह कर चला जाता है, शायद वह गुरु जी का ही कोई शिष्य था | दोनों मित्र कतार में लगे अपना नम्बर आने के इंतजार में लग जाते है |
तभी एक बड़ी सी कार से किसी महानुभाव का आश्रम में आगमन होता है, हथियार बंद अंग रक्षकों के साथ देखने से ऐसा जान पड़ता है की शायद कोइ नेता, या मंत्री है | परन्तु ये क्या उनके आते ही वो युवक स्वागत के लिए दौड़ पड़ता है जो, राजेश को कतार में लगने बोल गया था | नेता जी भी उसके साथ दनदनाते हुये, उस कमरे के अन्दर चले गये जिसमे गुरु जी थे | यह घटना कोई नई नही थी पर इस से राजेश के मन में कुछ खिन्नता आ गई | लगभग दो- तीन घंटो के इंतजार के बाद राजेश का नम्बर आता है और दोनों मित्र कमरे में प्रवेश करते है |
अन्दर स्वर्ण सिंघासन में बेठे हुए गुरु जी, शरीर में मखमल का वस्त्र, मोतियों की माला पहने, माथे पर चन्दन का तिलक लगा हुआ दिखाई दे रहे थे | अगल – बगल खड़े शिष्य पंखा झुला रहे थे और बगल के सोफे पर वही नेता जी बैठे थे | कतार में लगे हुए चलते – चलते दोनों ने गुरु जी को प्रणाम किया व आशीर्वाद प्राप्त कर आगे बढ़ गये| राहुल तो गुरु जी का आशीर्वाद प्राप्त कर प्रसन्न दिख रहा था मगर राजेश में वो प्रसन्नता न थी जो आश्रम में आने से पूर्व थी | राजेश के चेहरे के भाव पढ़ते हुए राहुल बोल पड़ा -
राहुल – राजेश, बताओ कैसा लगा गुरु जी से मिल कर ?
राजेश – मुझे तो कुछ खास नही लगा, लोग गुरु बनाते इसलिए है कि उन्हें अपने गुरु का मार्ग दर्शन प्राप्त हो सके पर यहाँ तो गुरु जी से बात करना भी मुश्किल सा दिखाई पड़ता है, मार्गदर्शन तो बहुत दूर की बात है |
राहुल – नही राजेश ऐसा नही है, गुरु जी बहुत सिद्ध पुरुष है, बड़े महात्मा है समय कम रहता है उनके पास और पहली मुलाकात में किसी को समझ पाना भी तो मुश्किल होता है | तुम दोबारा मिलोगे तो समझ जाओगे, हम कल सुबह जल्दी चलेंगे |
राजेश - ठीक है, जेसा तुम ठीक समझो|
दोनों मित्र घूम-फिर कर देर रात राजेश के घर पहुँचते है, राहुल अपने घर की ओर जाने को जो ही कदम बढ़ाता है, पीछे से राजेश की माँ आवाज़ लगाते हुये बाहर आती है ‘अरे राहुल बेटा रुक जरा’, भोजन का समय हो गया है भोजन करके ही जाना | राहुल न नुकुर करने लगता है पर राजेश के मनाने पर मान जाता है | सभी साथ में भोजन करते है और राहुल सबकी आज्ञा पाकर अपने घर चला जाता है, राजेश भी थकान की बजह से जल्दी सोने चला जाता है |
सुबह राहुल जल्दी आ जाता है और दोनो गुरु जी से मिलने निकल पड़ते है | आज आश्रम में ज्यादा भीड़ न थी दोनों सुबह – सुबह ही पहुँच गये थे, पर आज भी उन्हें प्रतीक्षा करने के सिवा कुछ न मिल पाया उन्हें गुरु जी से मिले बिना ही लोटना पड़ा | आज राजेश को बहुत निराशा हुई |
राजेश – राहुल, क्या तुम्हारे गुरु जी कभी तुम्हारे घर आये है ? कभी तुम्हे उनसे बात करने का, उनका मार्गदर्शन प्राप्त करने का मोका मिला ?
राहुल – नही, कभी मौका नही मिल पाया |
राजेश – तो फिर ऐसे व्यक्ति को गुरु बना कर भी क्या फायदा ? जो कभी हमारा मार्गदर्शन भी न कर सके, जिसके चरण कभी हमारे घर न पड़ सके, जो सिर्फ बड़े लोगो से ही मिलता हो | मै उसे ही अपना गुरु बनाऊंगा जो मुझे मार्गदर्शित कर सके, जो बड़े – छोटे, अमीर – गरीब के भेद – भाव से दूर हो | राहुल निरुत्तर सा रह गया | दोनों वापिस गाँव लोट आये, राजेश ने पूरा वृतांत अपने पिता जी को बताया | राजेश के पिता ने उसे समझाया की हर किसी को गुरु तो बनाना ही होता है, तुम भी किसी न किसी को बना लो, पर राजेश इस उत्तर से संतुष्ट नही हुआ | राजेश के मन में अपने गुरु की एक अलौकिक छवि बन रही थी, पर बार – बार यह प्रश्न भी उठ रहा था कि आज के आधुनिक युग में राजेश के गुरु की कल्पना कही कल्पना ही तो न रह जायेगी या राजेश को वास्तव में उसकी कल्पना अनुसार गुरु मिल पायेगा ?
राजेश अपने गुरु की खोज में निकल गया | राजेश ने कई आश्रमों में जाकर बाबाओ से मिलने का प्रयास किया पर कोई भी राजेश की कल्पनाओ के करीब न था | राजेश लम्बे प्रयासों के बाद हताश सा हो गया था पर कही भी राजेश को अपना गुरु नही मिल पाया | आखिर आज गुरु पूर्णिमा का दिन भी आ गया पर राजेश की गुरु की खोज पूरी न हुई |
आज राजेश उदास सा दिख रहा था, अपना मन बहलाने के लिए राजेश ने टी.व्ही. ऑन किया ही था कि राहुल आ पहुँचा | आज राहुल के साथ कोई ओर भी आया था जिसे देख कर राजेश के चेहरे पर प्रसन्नता लौट आई और दोनों गले लग गये, दरअसल वो कोई ओर नही राजेश के कॉलेज का मित्र मनीष था | मनीष एक सभ्य प्रतिष्ठित परिवार का लड़का था, जो शहर में राजेश के साथ पढाई कर रहा था |
राजेश – अरे मनीष, आज अचानक केसे आना हुआ ? खबर कर देते तो बस अड्डे लेने आ जाता |
मनीष – अरे भाई, तुम्हे तो हमारी याद आती नही है, तो हमने सोचा हम ही मिल आते है |
राजेश – बहुत अच्छा किया, मुझे भी तुम्हारी याद आ रही थी, आओ बैठो |
( तभी छोटू पानी लेकर बाहर आता है और मनीष को पानी देकर प्रणाम करता है )
मनीष – अरे राजेश, घर में कोई दिखाई नही दे रहा, कहाँ है सब ?
राजेश – पिता जी और भैया खेत गये हुये है और माँ भाभी पड़ोस में काकी के घर | तुम वो सब छोडो ओर बताओ तुम्हारे घर पर सब केसे है, सब कुशल है न |
मनीष – हाँ, भाई सब कुशल है, तुम सुनाओ गाँव में तो खूब दावते उड़ाई जा रही होंगी |
बातो ही बातो में राजेश का ध्यान टी. व्ही. की ओर चला जाता है, मनीष के आने पर वह टी.व्ही. बंद करना भूल ही गया था | टी. व्ही में न्यूज़ चेनल चल रहा था, कि तभी उसमे उसी बाबा और नेता जी की गिरफ़्तारी की खबर दिखाई जा रही थी, जिनसे मिलने राहुल, राजेश को ले गया था | आगे देखने से पता चलता है कि बाबा आश्रम की आड़ में नेता के साथ मिल कर अपने गैरकानूनी धंधे चला रहा था | बाबा का यह रूप देख कर राजेश को झटका सा लगता है | बाबा के ऊपर बड़े ही संगीन अपराध कायम हुये थे और बाबा के भक्तो द्वारा बाबा की रिहाई के लिये शहर में जगह –जगह, तोड़ –फोड़ की जा रही थी | राजेश के मन में फिर वही प्रश्न उठने लगे थे, यह भक्ति है, या अंध भक्ति | क्या बाबा का ये रूप समाज के लिये हितकर है ? क्या ऐसे इन्सान को किसी का गुरु बनने का अधिकार है ? तभी मनीष बोल पड़ा –
मनीष – पता नही लोगो को क्या हो गया है, परम्पराओ के नाम पर लोग बड़ी आसानी से ठगे जा रहे है | अच्छे से अच्छे पढ़े –लिखे लोग भी इन बाबाओ के चक्कर में पड़ जाते है | इन्ही लोगो के कारण ऐसे अपराधी धर्म का नाम लेकर अपनी दुकान चला रहे है |
राहुल – मनीष, किसी के चहरे पर थोड़े ही लिखा होता है कि वो कैसा है और गुरू बनाना तो हमारी परम्परा है | सभी किसी न किसी को गुरु बनाते है |
मनीष – हाँ, गुरु बनाते है पर किसी ऐसे को गुरु बनाने का क्या लाभ जो अपने स्वार्थो के लिये अपने शिष्यों का गलत इस्तेमाल करे उनको गलत मार्ग दिखाये | वास्तव में आज के आधुनिक युग में गुरु शिष्य परम्परा को गलत रूप में फैलाया जा रहा है |
सही है कि हर किसी को अपने जीवन में एक गुरु की आवश्यकता होती है जो व्यक्ति का सही मार्ग दर्शन कर सके पर आज इसे धार्मिक परम्पराओ के नाम पर थोपा जा रहा है ओर कही – कही तो लोग इसे अपनी दुकान चलाने का जरिया बना बेठे है| ( तभी अपने प्रश्नों का उत्तर पाने की इक्षा से राजेश बोल पड़ाता है )
राजेश – तो क्या गुरु बनाना गलत है ? हमे गुरु नही बनाना चाहिये?
मनीष – नही ऐसा नही है, पर गुरु बनाने से बेहतर गुरु मानना है | प्राचीन काल में आश्रम व्यवस्था थी मानव जीवन चार आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास में बटा हुआ था और समाज में गुरुकुल व्यवस्था प्रचलित थी, जहाँ से यह गुरु शिष्य परम्परा प्रारंभ हुई | उस दौरान राजा – महाराजाओ की संतान अपने जीवन का ब्रह्मचर्य या बाल आश्रम गुरुकुल में रह कर किसी एक गुरु के आधीन रह अध्यन- अध्यापन में बिताते थे | लेकिन अब गुरुकुल व्यवस्था नही है, कक्षाओ के साथ स्कूल और कॉलेज बदल जाते है, लोगो ने इस गुरु – शिष्य परम्परा को धार्मिक परम्परा का नाम दे दिया और कुछ लोग इस परम्परा का गलत लाभ उठा रहे है |
राजेश – तो आज के समय में हमे किसे अपना गुरु बनाना चाहिये ?
मनीष – गुरु बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण गुरु मानना होता है | इस संबंध में एकलव्य का नाम बहुत प्रसिद्ध है और गुरु शिष्य परम्परा का वह प्रसंग भी सभी ने सुना ही है - “ महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निषादपुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया। एक दिन पाण्डव तथा कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अतः उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग रह गए और बाण चलाने वाले की खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है”|
इस प्रसंग से यह स्पष्ट है कि किसी को गुरु बनाने से अधिक श्रेष्ठ गुरु मानना है | आज समाज में कई लोग ऐसे है जो इस गुरु शिष्य परम्परा का फायदा उठा कर भोले – भाले लोगो को ठगते है, उनका गलत इस्तेमाल करते है | ऐसे में हमारी युवा पीड़ी के मन में बार – बार यही प्रश्न उठता है की गुरु किसे बनाया जाये ? यह तो स्पष्ट है कि ऐसे पाखंडी लोगो को गुरु बनाना गुरु शिष्य परम्परा को कलंकित करना है | हमारे देश के युवाओ का यह सौभाग्य है की हमारे देश में स्वामी विवेकानंद, मदर टेरेसा, डॉ कलाम जैसे अनेको महापुरुषो ने जन्म लिया है जिनका सम्पूर्ण जीवन समाज के लिये एक आदर्श है | यदि हम उन्हें अपना मानस गुरु मानकर उनके जीवन के किसी एक सिद्धांत को भी अपने जीवन में अपनाते है, तो हम अपने साथ – साथ समाज के हित में भी अपना योगदान दे सकते है |
राजेश को अपने प्रश्नों का उतर मिल चुका था या ये कहे की उसके ‘गुरु की खोज’ पूर्ण हो गई थी| राजेश समाज के लिये काम करना चाहता था आज गुरु पूर्णिमा के दिन राजेश ने स्वामी विवेकानन्द जी को अपना मानस गुरु मान समाज के लिए कार्य करने का प्रण ले लिया था|

- सूर्यकांत चतुर्वेदी 

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